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30 सित॰ 2010

बचपन बरबस याद आता है

कोई लौटा दे मेरा बचपन, चाहे कुछ दिन के लिए,

चाहे कीमत वसूल ले वह इनके लिए।



जब ‘सबसे ऊँची’ जगह होते थे पिताजी के कन्धे,

जब झूठ बोलने वाले होते थे ‘सबसे गन्दे’।



जब ‘सबसे बड़ा दुख’ होता था घुटनों का छिलना,

जब खुशियाँ दे जाता था रेंत मे सिपियों का मिलना।



जब याद रखनी होती थी बस दादी की कहानी,

जब ‘ख़ज़ाने’ होते थे बस कंकड़, पत्थर, चीजें पुरानी।



जब ‘सबसे बड़े दुश्मन’ थे अपने बहन भाई,

जब खुद को अकेला पा कर हीं आ जाती थी रूलाई।



जब पूरा गिलास दूध पी जाने पर ही मिल जाती थी शाबासी,

जब सभी घेर लेते थे चेहरे पर देख के उदासी।



जब माँ के चुम्बन को ही समझते थे ‘प्यार’,

जब डराती थी बस मास्टर जी की मार।



जब फ़िक्र न थी कि कपड़ों पर मिट्टी लगी है या धूल,.

जब ‘सबसे मुश्किल काम’ था जाना स्कूल।



जब चुपके से निंबू के अचार का पानी पीने को ही समझते थे चोरी,

जब स्वप्नलोक में पहूँचा देती थी बस माँ की लोरी।



खो गई वह मासूम मुस्कुराहट, नहीं मिलती सच्ची खुशी, सच्चा प्यार,

नकली मुस्कुराहटों के पीछे छ्ल है, कपट है किसका करूँ ऐतबार ।



अब जब बड़े मन बड़े तन के लिए सब कुछ कम पड़ जाता है,

होठों को मुस्कान देता सुनहरा बचपन बरबस याद आता है।



प्रकाशित: लेखापरीक्षा-प्रकाश, बानवेवां अंक, अप्रेल-जून 2010


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