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29 जुल॰ 2013

बाल दिवस पर क्त्ल

कुछ दिन पहले दोपहर भोजन योजना में लापरवाही/भ्रष्टाचार की भेंट चढ़े नौनिहालों की घटना ने सहसा 2008 में लिखी मेरी इस कविता को अफसोस है कि प्रासंगिक कर दिया है। हालाँकि कविता की तकनीकी गुणवता उतनी नहीं है परंतु मेरे भावों को सटीक रूप से व्यक्त करती है।

बाल दिवस 2008 को अख़बार में आई ये खबर,
मिलावटी दूध पी कर सरकारी स्कूल के पाँच बच्चे गए मर।

माँ के गर्भ में बच्चा डरता है बाहर आने से,
जानवर कहलाना कहीं अच्छा है ऐसा इंसान कहलाने से।

पेशेवर कातिल क्त्ल करता, दाल रोटी चलाने को,
इन शिक्षकों ने पाँच बच्चों को मार दिया हलवा पूरी खाने को।

इस स्वाधीनता को पाने को, हमने सहा था कितना कष्ट,
अंग्रेजों की जगह बैठ गए, देखो दरिन्दे कैसे भष्ट।

देश की सेवा करना तो दूर, वेतन मिलने पर भी फर्ज़ नहीं निभाते हैं,
बेच कर इंसानियत, इमान, कैसे कैसे पैसे बनाते है।

बिक जाए देश या फिर चले जाएँ किसी के प्राण,
लूट के माल से अपना घर भरना है इन्होने लिया है ठान।

ऐसे गद्दारों, लुटेरों को देखो आती नहीं शरम,
सबको पैसे से खरीद लेगे, रखते हैं ये भरम।

पर उपर वाले का अन्दाज़ है कुछ निराला,
सारा ज़माना देखेगा अब इनका मुँह काला।

अब नौकरी भी जाएगी, ये पैसे भी बहाएँगे,
कल देख लेना सलाखों के पीछे नज़र आएँगे।

इमान की रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ,
गर कोई मिले बेइमान तो उसको ये समझाओ,

जो पैसा गलत तरीके से किसी की जेब में आता है,

वो वैसे ही वकील, वैद्य या चूहे के पेट में जाता है।

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