इस बार अपनी एक पुरानी रचना जो कि मैंने 28 जून 2004 को
लिखी थी।
सावन में इन आँखों से कुछ ऐसे मोती भी बरसते हैं,
जो उनकी याद में गिरते हैं, जिन से हम मिलने को तरसते
हैं,
बादलों के गर्जन में एक आह दब कर रह जाती है,
जब उनसे मिलने की चाहत दिल में इक टीस जगाती है,
अम्बर जब बरस-बरस कर तपती धरती की प्यास बुझाता है,
मुझको भी बार-बार मेरा साक़ी याद आता है
काली, लम्बी रातों में जब बिजली से डर छुपता है अन्धेरा
दो पल को,
चाहत उठती है, बस दो पल ही सही, वो आएँ, सफल कर जाएं
जीवन को।
मेंढक भी जब फुदक-फुदक कर अपने मीत बुलाते हैं
लगता है, हमसे ये मेंढक ही भले, दिल खोल इश्क फ़रमाते
हैं ।
भीग रहें हैं पेड़ पौधे, छा गई उन पर भी जवानी है,
भीगे हैं हम जिससे, पता नहीं
आँसू है कि पानी है।