जब से कोलकाता
मेट्रो नए रास्ते पर चलने लगी बिना तैयारी,
खड़ा होना मुश्किल
हो गया, बैलगाड़ी बन गई शान की सवारी।
रंग रोगन लगा दौड़
रहे हैं डिब्बे बुढ़े, पुराने,
कोई चूँ-चूँ ठक-ठक
करता है कोई गाता बेसुरे गाने।
कुछ के पँखे ऐसे
घूमते हैं जैसे दारू पी के झूमते हैं,
दरवाज़े भी लगने के
पहले दस-बीस बार एक दूसरे को चूमते हैं।
पन्द्रह मिनट की
यात्रा के लिए टिकट गेट पर पाँच मिनट इंतज़ार
उपर से पचास
यात्रीयों के डिब्बे में दो सौ की भीड़ सवार
जो भी स्टेशन आता
है भीड़ दूगनी तेज़ी से बढ़ती है,
अन्दर की भीड़ हर
स्टेशन पर बाहर की भीड़ से लड़ती है।
फिर भी कुछ घुस
जाते हैं, ठेलम ठेल मचाते हैं,
पर अन्दर घुसते
हीं वे भी अन्दर के हो जाते हैं।
किसी का पैर
कुचलता है, किसी की बच्ची रोती है,
छेड़-छाड़, मार-पीट,
पाकेटमारी भी होती है।
छेड़-छाड़ की हद
नहीं कोई, महिलाओं की हालत है बहुत बुरी,
अगर ज़ल्दी कुछ
नहीं सुधरा, उनको लेकर चलना होगा चाकु छुरी।
आत्महत्या के लिए
नहीं है इससे कोई बेहतर उपाय,
मात्र चार रूपए
में , बिना कष्ट पल में स्वर्ग पहुँचाए।
जिस दिन कोई आफिस
आवर्स में स्वर्ग को जाता है,
हज़ारों को देर करवा
कर बॉस से डाँट खिलवाता है।
कब तक चलता रहेगा ऐसे ठेलम ठेल का खेल।
प्रकाश्य : 96वाँ अंक लेखा-परीक्षा प्रकाश