Follow me on Facebook

3 जन॰ 2011

किराए का मकान

इस बार के चिट्ठे मे पढ़िए एक कहानी: निर्जिव, पराए किराए के मकान से एक स्त्री के भावनात्मक जुड़ाव की। ये कहानी मैंने 2003 में लिखी थी। हँसराज कॉलेज में मुझे जर्मन भाषा पढ़ाने वाली प्रोफेसर प्रतिभा भट्टाचार्जी अपने पुराने सरकारी क्वार्टर्स को छोड़ कर अपने नए मकान में जाने वाली थीं। हमें पढ़ाते पढ़ाते अक्सर भावुक हो उठती थीं। उनकी भावनाओं के उपर तानाबाना बुन कर तैयार की गई है ये काल्पनिक कहानी। इसके सभी पात्र और घटनाएँ कालपनिक हैं एवं उनका जीवित अथवा मृत किसी भी व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। उम्मीद है आपको अच्छी लगेगी।


15 वर्ष पहले जब मैं यहाँ आई थी तब यह घर हमारे लिए अनजान था और हम भी इसके लिए अज़नबी। घर में घुसते हीं लगा मानो हर दरवाजा, हर खिड़की पूछ रहे थे, आप कौन? कई मायनो में उन्होंने भी हमें अपनाने से अपना विरोधा जताया था। कभी खिड़की से चोट तो कभी रसोईघर के छोटे दरवाजे की चोखट से। सीढ़ीयाँ देख देख कर चढ़ते थे और दरवाज़े खिड़कीयों की कुण्डियाँ देख देख कर बन्द करते थे।

पीछे की बगिया में मुरझाए हुए पौधे और फूल अपनी उदासी (पुराने किराएदार के जाने पर) साफ बयान कर रहे थे। पिछले किरायेदार के बच्चे भी थे शायद, जिन्होंने दीवारों पर कुछ फूल पत्तियाँ, तो कहीं जानवरों के चित्र भी बना रखे थे। हालाँकि सारे चित्र पेंसिल या मोम के रंगों से बनाए गए थे पर मुझे वे अच्छे लग रहे थे। जब मेरे पति ने कहा कि महीने दो महीने बाद आने वाली दीपावली के पहले सफेदी करवा कर इन्हें मिटा देंगे तो मन ही मन मुझे अच्छ नहीं लगा था।

घर में आने के पहले दिन हीं गुसलखाने की नाली जाम हो गई। हमें लगा मानो हमारे साथ धोखा हुआ है। क्या यह समस्या हमेशा हीं रहेगी? गुस्से में आकर मेरे पति जब मकान मालिक से शिकायत करने गए तब उसने भी अनभिज्ञता ज़ाहिर की और कहा कि ऐसा पहले कभी नहीं हुआ है। साफ सफाई करवाने पर जब सारे आफत की जड़ पोलिथिन का एक टुकड़ा बाहर आया तब हमने राहत की साँस ली। अब मुझे शक होता है कि कहीं यह गुसलखाने का हमें अस्वीकार करने के इज़हार का एक तरीका तो नहीं था? हो सकता है।

समय बीतता गया दिनब-दिन कुछ नया होता गया और हर घटना हमें इस घर से और जोड़ती गई। राहुल का जन्म हमारे इसी घर में आने के चार महीने बाद हीं हुआ था। मैं कैसे भूल सकती हूँ वह कोने वाला कमरा जो प्रसव पश्चात बीस दिनों के लिए मेरा आश्रय था। हमारे यहाँ एक प्रथा है कि प्रसूता स्त्री को 20 दिनों तक अलग एक कमरे में काटना पड़ता है। सासू माँ और पिता जी उन्हीं दिनो अपना सारा सामान लेकर हमारे साथ रहने आ गए। मैंने ही बुलवाया था उन्हें, गाँव में रखा भी क्या था। पिता जी के खेत तो इनकी पढ़ाई के लिए बिक गए थे, फिर पिता जी की उम्र भी आराम करने की हो चली थी। गाँव की अपनी दुकान बेच कर जब वे और माँ जी हमारे साथ रहने आ गए तब मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। अब राहुल के पापा के दफ्तर चले जाने के बाद मुझे सुना सुना नहीं लगता था। राहुल के आने के बाद वह खुशी चार गुनी हो गई थी। राहुल के बाद नेहा आई और पूरा घर हर समय दादा दादी और पोते-पोती के कह-कहों से गुंजता रहता था।

समय मानो तेजी से भागता जा रहा था। खुशी के दिन तो वैसे भी जल्दी-जल्दी कटते हैं। पर एक बात तो तय थे कि हर जाता हुआ दिन हमारे आपसी और इस घर से हमारा नाता और गहरा करता जा रहा था। अब सीढ़ीयाँ देख कर चढ़नी नहीं पड़ती थी और खिड़कियाँ दरवाजों की सिटकनियों को तो मानों हाथों ने भी देख लिया था। पड़ोसियों से भी दोस्ती हो गई। चार पाँच सालों में तो ऐसा लगने लगा मानों हम सदा से यहाँ हीं रहते आए थे।

दस साल बीत गए। एक दिन हँसते-बतियाते पिता जी चल बसे। उनके बिना तो यह घर तो बस काटने को दौड़ता था। दिन भर लगता मानो राहुल और नेहा से मज़ाक करने के बाद उनकी हँसी गूँज रही हो। खैर समय ने ये घाव भी भर दिए, पर माँ जी की आँखों में आज भी सूनापन दिखता है। बहुत प्यार करते थे दोनो एक दूसरे से।

करीब तीन साल पहले राहुल के पापा ने एक दिन जब मुझसे कहा कि पास में अपना घर खरीदने लायक पैसे हो गए हैं तब मैं फूले न समाई। अपने घर का सपना जो पूरा होने वाला था। पिता जी कि दूकान के पैसे जो इन्होंने फिक्स्ड डिपोज़िट करवा रखे थे उसके पैसे भी मिलने वाले थे। मिला जुला कर इक अच्छा मकान बनाने  लायक पैसे हो गए थे। मकान के लिए जमीन की खोज़ शुरू हुई। पर यह इतना आसान नहीं था, हाथों में पैसे रहते हुए अच्छी जगह ज़मीन नहीं मिल रही थी। दो साल के बाद यह खोज़ खत्म हुई। कानूनी औपचारिकताएँ पूरी होने के बाद जब मकान बनाने की बारी आई तो हमने ठेकेदारों की सेवाएँ लेने से साफ इनकार कर दिया। हम अपना मकान अपनी पसन्द से अपनी निगरानी में बनवाना चाहते थे।

जिस दिन भूमिपूजन के साथ उस पर पहली ईंट पड़ी उसी दिन मुझे अहसास हुआ कि हमें पुराना मकान छोड़ना पड़ेगा। धीरे-धीरे ये बेचैनी बढ़ती गई। पिछ्ले हफ्ते मैंने कैमरे की फिल्म के दो रोल खरीदे। मैं मानो घर के कोने-कोने को तस्वीर में कैद कर लेना चाहती थी। जब इन्होने देखा कि एक रोल के बाद दूसरा भी मकान पर ही खर्च होने वाला है, तब इन्होंने मुझे टोका और कहा - अब बस भी करो। पर मुझे बुरा नहीं लगा । क्योंकि उनको क्या पता, रोज़ के चौबीस घंटों के मुकाबले उनके तो दस बारह घंटे ही बीतते थे घर पर। उनको समझ में कैसे आती मेरी भावनाएँ ।

आज सुबह सारा सामान खाली कर हम नए आशियाने की तरफ बढ़ चले है। पीछे ऑटो में नेहा, माँ जी और राहुल आ रहे हैं। मैं और ये ट्रक की अगली सीट पर बैठे हैं। मन में हलचल चल रही है। अब शायद दर्द आँसू बन कर बह निकलेगा। अपने आप को रोकना मुश्किल हो रहा है। खैर मायके से ससुराल आते वक्त भी तकलीफ हुई थी पर यह उससे अलग है। उस समय मन को ढाढस बंधा दिया था कि यह सब तो सामाजिक रीत है। पर इस बार बस एक ही ढ़ाढस है कि अब ऐसी जुदाई नहीं झेलनी पड़ेगी। पीछी ट्रक में लदे सामान भी मानो आवाज़ दे दे कर चिल्ला रहे हैं कि हमें भी नहीं जाना है। इन निर्जीवों का तो नाता ज्यादा गहरा होगा मेरे निर्जीव पुराने घर से। और मेरे आँसू बह निकलते हैं।

प्रकाशित: सुबह-जुलाई-सितम्बर 2006

2 टिप्‍पणियां:

  1. jab jab kisi aadmi ko ek aurat ki zabaan itni sateek bolte dekhti hoon, bahut hairaani hoti hai..aaj bhi hui..

    जवाब देंहटाएं
  2. इसी लिए लेखन को एक कला कहा जाता है।लेखक एवं कवि को छोड़ के कोई भी व्यक्ति एक जनम में सभी दु:ख,सुख एवं सभी प्रकार की अनुभूती नहीं सकता है। मैंने भी इस कहानी के माध्यम से ऐसी एक कोशिश की थी। आपकी प्रशंसा से मालूम हुआ कि उसमें मैं सफल भी रहा।

    जवाब देंहटाएं

Thanks for choosing to provide a feedback. Your comments are valuable to me. Please leave a contact number/email address so that I can get in touch with you for further guidance.
Gautam Kumar

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...