वह कार से चलता
है,
सारा मुहल्ला ज़लता
है।
पड़ोस के बनिए के
यहाँ से चावल हो लाना,
या सब्जी लेने बाज़ार
हो जाना,
पैदल चलने वालों
को समझता है हीन,
चाबी घुमाओ और
निकल दो एक दो तीन।
पर उनका क्या जो कार से नहीं चलते,
साईकिल पर या पैदल
हैं निकलते।
कंजूस है सारे या
फिर हैं गरीब ,
ये कहता फूटे हैं
उनके नसीब।
हाँ उनके नसीब तो
फूटे ही हैं,
कार से भी नहीं
चलते,
फिर भी पर्यावरण
का विष पीते हैं,
दमा, खाँसी आँखों
में जलन झेल के जीते हैं।
धुआ नहीं छोड़ते
फिर भी कष्ट झेलते हैं जीने में,
झेलते हैं जेठ की
गर्मी माघ पूस के महीने में।
कार वाला तो एसी
भी चला लेता है,
ये गरीब क्या करे
दिन मे दो तीन बार नहा लेता है।
नहा लेता है पास
की नदी मे, नहीं-नहीं नाले में,
नाला ही तो है वह,
काला दिखता है दिन के उज़ाले में।
कभी नदी हुआ करता
था,
चमचम करता
किलकारियाँ भरता था,
अब पड़ोस के
कारखाने का कचरा वहन करता है,
जिसमें बाबुओं के
लिए शीतल पेय बनता है।
कार वाला गरीबों
को देख कर नाक भौह सिकोड़ता है,
अपने ऐशोआराम के
लिए उनके हवा पानी में ज़हर घोलता है।
कार वाले बाबू को कब आएगी अकल,
कब पड़ोस से सब्जी लाने गर्व से जाएगा
पैदल।