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30 नव॰ 2012

खोया हीरा

एक हीरा था जिसको शीशा समझ खो दिया अनजाने में,
तड़पता हूँ, तरसता हूँ, ढूँढ़ता रहता हूँ हर जगह वीराने में।


कभी बेबात मुस्कुरा कर , कभी मिठी बातों की बौछारों से,
वो हरदम कुछ कहना चाहती थी, कभी फूलों से, कभी उपहारों से।

वो बाँसूरी थी जिसकी वाणी कानों मे मिश्री घोलती थी,
ना समझ सका गहरी आँखें तब क्या मुझसे बोलती थीं।

वह कस्तूरी तो पास ही थी जिसको तकता था दूर तलक,
तब आँखों पर परदा छाया था, अब तरसूँ पाने को एक झलक।

उस समुद्र को रख सके, इतना बड़ा मेरा दिल ना था,
वो स्वर्ण परी थी, ये नाचीज़ ही उसके काबिल ना था।

फूल से दिल को कुचलने की शायद यही सज़ा मुकर्रर है,
वीराने में भटकना, अपना सर पटकना, अब यही मेरा मुकद्दर है।

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Gautam Kumar

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