एक हीरा था जिसको शीशा समझ खो दिया अनजाने में,
कभी बेबात मुस्कुरा कर , कभी मिठी बातों की बौछारों से,
वो हरदम कुछ कहना चाहती थी, कभी फूलों से, कभी उपहारों से।
वो बाँसूरी थी जिसकी वाणी कानों मे मिश्री घोलती थी,
ना समझ सका गहरी आँखें तब क्या मुझसे बोलती थीं।
वह कस्तूरी तो पास ही थी जिसको तकता था दूर तलक,
उस समुद्र को रख सके, इतना बड़ा मेरा दिल ना था,
वो स्वर्ण परी थी, ये नाचीज़ ही उसके काबिल ना था।
वीराने
में भटकना, अपना सर पटकना, अब यही मेरा मुकद्दर है।
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Gautam Kumar