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29 दिस॰ 2009

रुठ गई नींद


नींद भी रुठ गयी है, तेरा साथ छोड़ के जाने के बाद

काश आज चैन की नींद आ जाए फिर, ज़माने के बाद.


तेरा चेहरा कुछ ऐसे घुमता है आंखो मे, बेचैनी बढ़ जाती है,

फिर दिल सिसक सिसक कर रोता है, फिर नींद किसे आती है.


तेरी गोद का सुकून ढुंढ्ते, रात बीतती है करवटें बदलते बदलते

भोर कब होती है, पता नहीं चलता तेरी याद में जलते जलते.


दिल माँगता है दुआएँ, काश वो दिन वापस आ जाते

ठंडक होती तेरे चुनर की, हम चैन की नींद सो पाते.


अब तो उम्मीद खो चुका हूँ, लगता है वो दिन वापस नहीं आएँगे,

मौत का इंतजार है अब बस, जब हम चैन की नींद सो पाएँगे.


अगली बार सोने से पहले बस इतनी दुआ करना,

मौत माँग लेना मेरे लिए, बस इतनी वफा करना.

मौत माँग लेना मेरे लिए, बस इतनी वफा करना...

प्रकाशित: सुबह, जनवरी-मार्च 2008.

3 दिस॰ 2009

वह दानव हममें बसता है

जीवन मे प्रगति की अन्धी दौड़ में,
सफलता नाम पैसे की होड़ में,
कुछ है जो चुभता है, जलता है,
सबकुछ ठीक है, मगर फिर भी कुछ खलता है.

अभी यहाँ पर यह जो अट्टालिका खड़ी है सीना तान,
वहाँ पर एक पेड़ था कभी जिस पर कोयल सुनाती थी तान.

आस पास रेंगते हैं काले धुएँ के गुब्बार,
कभी यहाँ बहती थी महकती मदमाती बसंत बयार.

और वो जो बह रहा है पीछे बड़ा सा नाला,
बदसूरत बदबुदार और कोयले से भी काला

कभी वहाँ निर्मल नदिया कलकल करती बहती थी.
आओ मिल कर होड़ लगाएँ राहगीरों से कहती थी.

अब तो उसकी गति पड़ गई है मन्द
गन्दगी और कचरे ने उसकी सांसे कर दी है बन्द.

और थोड़ी दूर वो जो नंगा सा पहाड़ घूर रहा है,
अपने ज़माने में वो भी खुबसूरती के लिए मशहूर रहा है.

इस अंतहीन सड़क पर जहाँ से ज़हर छोड़ती धूल धूसरित गाड़ियाँ रेंग रही हैं,
कभी वहाँ छ्लांगे भरते थे शावक आज ढूँढा तो पाया वो कहीं नहीं हैं.

किसने तोड़ा उन घोसलों को, पक्षियों ने कितनी मेहनत से बनाया होगा,
किसने मारा उन जीवों को, मारने के पहले कितना तड़पाया होगा.

नदिया जो वहती थी चुपचाप,
जाने किस दानव का उसको लग गया श्राप.

झाँको, अपने भीतर देखो,
वो दानव हममें बसता है,
अपना जीवन पाया जिस प्रकृति से,
उसका हीं गला घोंटता है और हँसता है.

प्रकृति का गला घोंट के
उसके प्रति हम अपना प्रेम कुछ इस तरह दिखाते हैं,
कुछ कुत्ते बिल्ली पाल कर,
गमलों मे दो चार पौधे लगाते हैं.

उन पौधों को भी रास नहीं आता,
मानव का ज़हरीला वातावरण
मुर्झाए हुए से मुस्काते हैं
ओढ़ कर धूल धूएँ का आवरण

प्रकाशित: सुबह, जनवरी-मार्च 2007

उसका बचपन जलता है

बर्तन धोने के बाद नाखून मे फँसे जूठन को निकालता एक लड़का
जाड़े मे ठिठुरी भिंगी उंगलियों को धूप में सुखाता वह लड़का.

मालिक की मार से सिसकता सुबकता,
तरीके ढूँढता बदले लेने के, थोड़ा बहकता.

पिटाई से पड़ गए छालों पर उँगलियाँ सहलाता,
पास के नाले में क़ंक़ड़ फेंक बीच बीच में मन बहलाता.

पास से गुज़रते स्कूली बच्चों को देखता एकटक,
सोंचता यह सुख नहीं मिल पाएगा उसे मरते दम तक

सोंचता काश उसने भी अमीरों के यहाँ जन्म लिया होता,
खेलता पढ़ता वो उन बच्चों की तरह और चैन की नींद सोता.

रात को फूट्पाथ पर सोने के लिये नहीं पड़ते पुलिस के डंडे,
सुबह में ढाबे के बासी या जूठन की जगह खाता ब्रेड दूध अंडे.

सोंचता क्यूँ जन्म से हीं फँसा पाया अपने को गरीबी के जाल में,
क्या क़सूर है उसका जो वो आज है इस हाल में.

क्या क़सूर है उसका, जो उसका बचपन जलता है,
हालत उसकी देखकर, हमारा मन क्यूँ नहीं मचलता है.
प्रकाशित: कादम्बिनी, दिसम्बर 2004
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