बर्तन धोने के बाद नाखून मे फँसे जूठन को निकालता एक लड़का
जाड़े मे ठिठुरी भिंगी उंगलियों को धूप में सुखाता वह लड़का.
मालिक की मार से सिसकता सुबकता,
तरीके ढूँढता बदले लेने के, थोड़ा बहकता.
पिटाई से पड़ गए छालों पर उँगलियाँ सहलाता,
पास के नाले में क़ंक़ड़ फेंक बीच बीच में मन बहलाता.
पास से गुज़रते स्कूली बच्चों को देखता एकटक,
सोंचता यह सुख नहीं मिल पाएगा उसे मरते दम तक
सोंचता काश उसने भी अमीरों के यहाँ जन्म लिया होता,
खेलता पढ़ता वो उन बच्चों की तरह और चैन की नींद सोता.
रात को फूट्पाथ पर सोने के लिये नहीं पड़ते पुलिस के डंडे,
सुबह में ढाबे के बासी या जूठन की जगह खाता ब्रेड दूध अंडे.
सोंचता क्यूँ जन्म से हीं फँसा पाया अपने को गरीबी के जाल में,
क्या क़सूर है उसका जो वो आज है इस हाल में.
क्या क़सूर है उसका, जो उसका बचपन जलता है,
हालत उसकी देखकर, हमारा मन क्यूँ नहीं मचलता है.
प्रकाशित: कादम्बिनी, दिसम्बर 2004
really interesting sir
जवाब देंहटाएंwe hope these blog in future also
achchhi kavita hai. vicharon ko kavya mein dhalte rahiye.
जवाब देंहटाएंBahut achhi aur dil ko choo lene wali rachna..
जवाब देंहटाएंkripya mere bhi blog me padharen..
http://pradip13m.blogspot.com