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3 दिस॰ 2009

उसका बचपन जलता है

बर्तन धोने के बाद नाखून मे फँसे जूठन को निकालता एक लड़का
जाड़े मे ठिठुरी भिंगी उंगलियों को धूप में सुखाता वह लड़का.

मालिक की मार से सिसकता सुबकता,
तरीके ढूँढता बदले लेने के, थोड़ा बहकता.

पिटाई से पड़ गए छालों पर उँगलियाँ सहलाता,
पास के नाले में क़ंक़ड़ फेंक बीच बीच में मन बहलाता.

पास से गुज़रते स्कूली बच्चों को देखता एकटक,
सोंचता यह सुख नहीं मिल पाएगा उसे मरते दम तक

सोंचता काश उसने भी अमीरों के यहाँ जन्म लिया होता,
खेलता पढ़ता वो उन बच्चों की तरह और चैन की नींद सोता.

रात को फूट्पाथ पर सोने के लिये नहीं पड़ते पुलिस के डंडे,
सुबह में ढाबे के बासी या जूठन की जगह खाता ब्रेड दूध अंडे.

सोंचता क्यूँ जन्म से हीं फँसा पाया अपने को गरीबी के जाल में,
क्या क़सूर है उसका जो वो आज है इस हाल में.

क्या क़सूर है उसका, जो उसका बचपन जलता है,
हालत उसकी देखकर, हमारा मन क्यूँ नहीं मचलता है.
प्रकाशित: कादम्बिनी, दिसम्बर 2004

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Gautam Kumar

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