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27 मार्च 2010

दरिन्दे


बारूद की गन्ध फैली है, माहौल है धुआँ-धुआँ
कपड़ों के चीथड़े
, माँस के लोथड़े फैले हैं यहाँ-वहाँ।


ये छोटा चप्पल किसी मासूम का पड़ा है यहाँ
ढूँढो शयद वह ज़िन्दा हो
, ढूँढो वो है कहाँ।

नहीं-नहीं वो मर गया, दरिन्दों की भेँट चढ़ गया,
वह पेड़ से टंगा है खून से सना उसका कुर्ता नया।

उस नौज़वान को देखो, कैसे आँखे ताक रहीं हैं आसमान को
मानो इस ज़ुल्म के लिए कोस रहा हो भगवान को।

पास में उसके फाइल पड़ी है, सर्टिफिकेट्स उसके हैं शायद
खत्म हो गया माँ बाप का लाडला
, खत्म हो गई नौकरी पाने की कवायद।

माँ बाप ने पढाया होगा बड़ी ज़तन से, सोंच के वह ऐसा काम करेगा,
इस दुनिया में रौशन वह उन दोनो का नाम करेगा।\

पर अब कौन बनेगा बुढ़ापे की लाठी, जब वह दुनिया में नहीं रहा,
अपने जीवन का बोझ लेके वे अब जाएँगे कहाँ।

खून से सना वह सुहाग की चूड़ियों वाला हाथ किसका है
अभी जीवन शुरू हुआ होगा
, चाहे जिस किसी का है।

ये देखो पति पत्नी लगते हैं, एक और आशियाँ उजड़ गया,
कोई वहशी इनके बच्चों को यतीम कर गया।

उनके बच्चे घर पर कर रहे होंगे उनका इंतज़ार
हँसती खेलती कलियों पर छा गया स्याह अन्धकार।

इस लड़की को देखो, इसका ब्याह होने वाला होगा
साल छ: महीनों में इसका दूल्हा आने वाला होगा।

बाप भाई जो लगे हुए थे, इसकी शादी की तैयारी में
अब हाथों की नब्ज़ों में जान ढूंढ रहे हैं बेचारी मेँ।

उस नौजवान को देखो, घायलों को बचाने में बेतहाशा लगा हुआ
यमराज भी किसी कोने में, देख रहा होगा उसको ठगा हुआ।

बस चन्द पैसों के लालच में या नफ़रत के उन्माद में
उजाड़ डाले कई घर
, सोंचा नहीं कुछ भी पहले या बाद में।

नवयुवकों को बहका कर, घर उज़ड़वाए मुम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद,
तुम सीमापार से तमाशा देखते रहे, कर गए कितनो को बर्बाद।

तुम्हें जानवर नहीं पुकार सकता, वे शिकार करते हैं भूख मिटाने को
वे अकारण नहीं मारते किसी को, तुम खून से खेलते हो मन बहलाने को।

यह ज़िन्दादिलों का मुल्क है, तू मौत बाँटते-बाँटते थक जाएगा,
इस देश की मिट्टी में लहलहाती, खुशियोँ की फसल ही पाएगा।

इतना रहम कर ऐ अधर्मी मत ले नाम किसी धर्म का,
दुनिया का कोई भी धर्म नहीं समर्थन करता इस कुकर्म का।

प्रकाशित: सुबह सन्युक्तांक 2009.

9 मार्च 2010

रोको उस दानव को

बिना सोचे कुल्हाड़ी चला टुकड़े कर देते हैं वृक्ष के शरीर के,
क्यूँ नहीं सोचते कितनी मेहनत से उगा होगा वह पौधा धरती का सीना चीर के।

क्यूँ सोंचते नहीं उसका बीज कैसे वहाँ पर आया होगा,
किसी पक्षी कि मेहरबानी होगी या किसी बूढे ने लगाया होगा।

उसके साथ होंगे कुछ और बीज जो देख नहीं पाए होंगे दुनिया की बहार,
वहीं पड़े सड़ गए होंगे या बन गए होंगे कीड़ों का आहार।

वह एक बीज जो प्रतिकूल परिस्थितियाँ सह पाया,
तूफानों में, बरसातों में अडिग खड़ा जो रह पाया।

उभरा है कितनी आफतों से खेल कर,
बाढ़ को, सूखे को हँसते रोते झेल कर।

किया है कई बार जानवरों ने नोंच-नोंच कर लहूलुहान,
चुप-चाप सह गया इसको अपनी किस्मत जान।






बड़ा हुआ प्रदूषण का विष पी-पी कर,
देता रहा प्राण वायु हमें खुद जैसे तैसे जी कर।

थके पथिकों को दी छाया, पक्षियों ने पाया आराम इस पर,

कुछ पक्षियों ने, कुछ जीवों ने इसे बना लिया अपना घर।

उन पक्षियों, उन जीवों की कई पुश्तों को ये जानता है,
शायद उनको भी ये अपनी संतान मानता है।

कुछ वार और, और इसकी इहलीला समाप्त हो जायेगी,
कोई रोको उस दानव को वरना ये विरासत खो जायेगी।

फिर शाम को पक्षियों को कौन बुलाएगा देने को आराम,
लालच मे मत भूलो कि क्या होगा अंज़ाम।

जब हरियाली नहीं होगी, बादल भी नहीं बरसेंगे,

सर्वनाश हो जाएगा, हम अन्न-अन्न को तरसेंगे।

सर्वनाश हो जाएगा, हम अन्न-अन्न को तरसेंगे......

प्रकाशित: लेखापरीक्षा-प्रकाश अप्रेल-जून 2008

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