क्यूँ नहीं सोचते कितनी मेहनत से उगा होगा वह पौधा धरती का सीना चीर के।
उसके साथ होंगे कुछ और बीज जो देख नहीं पाए होंगे दुनिया की बहार,
वहीं पड़े सड़ गए होंगे या बन गए होंगे कीड़ों का आहार।
वह एक बीज जो प्रतिकूल परिस्थितियाँ सह पाया,
तूफानों में, बरसातों में अडिग खड़ा जो रह पाया।
उभरा है कितनी आफतों से खेल कर,
बाढ़ को, सूखे को हँसते रोते झेल कर।
किया है कई बार जानवरों ने नोंच-नोंच कर लहूलुहान,
चुप-चाप सह गया इसको अपनी किस्मत जान।
बड़ा हुआ प्रदूषण का विष पी-पी कर,
देता रहा प्राण वायु हमें खुद जैसे तैसे जी कर।
थके पथिकों को दी छाया, पक्षियों ने पाया आराम इस पर,
उन पक्षियों, उन जीवों की कई पुश्तों को ये जानता है,
शायद उनको भी ये अपनी संतान मानता है।
कुछ वार और, और इसकी इहलीला समाप्त हो जायेगी,
कोई रोको उस दानव को वरना ये विरासत खो जायेगी।
फिर शाम को पक्षियों को कौन बुलाएगा देने को आराम,
लालच मे मत भूलो कि क्या होगा अंज़ाम।
जब हरियाली नहीं होगी, बादल भी नहीं बरसेंगे,
सर्वनाश हो जाएगा, हम अन्न-अन्न को तरसेंगे......
प्रकाशित: लेखापरीक्षा-प्रकाश अप्रेल-जून 2008
explendit blog, congratulations
जवाब देंहटाएंregard from Reus Catalonia
thank you
Do you understand Hindi?
जवाब देंहटाएं